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एक शाम यूँही आसमान की छाओं में
हम बैठे है कुदरत की बाहों में
ये पानी का शोर
जो कानों का संगीत है
आज ज़िन्दगी का
एक अलग ही रंग रूप है
मैं मेरा मेरी मुझसे
दूर अपने हर दिन की रुत से
आज मौसम ये जीने का है
ज़िन्दगी हर पल एक नगमा है
हर रोज़ की मौत से
दूर शहर की सोच से
यहाँ न अपना
न कोई दूसरा
दुनिया-दारी से
न कोई राब्ता
सरसराती ठण्डी हवायें
गले लगाती सूरज की बाहें
चहचहाती चिड़ियों की बोली
जीवन की ये रास-रंगोली
हमें क्या पता
हमें क्या ख़बर
शहर की हवा में
ज़हर घोल कर
जीते है हम
जैसे सब है
ख़ुद को ख़ुद में
लगता डर है
जाने कब वो
मौसम आ जाए
ज़िन्दगी पतझड़ सी
कब झड़ जाए
जाने यहाँ फिर कब आना है
कल वापिस फिर घर जाना है
तेरी मेरी मुझसे तुझसे
उसी गीत को फिर गाना है
उसी धुन को गुनगुनाना है
एक शाम यूँही आसमान की छाओं में
हम बैठे है कुदरत की बाहों में
!!
लेख़क: SAURAV BANSAL
लेख़क: SAURAV BANSAL
Too good baba...so beautifully written ������
ReplyDeletethanks baba
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