Skip to main content

मिड्ल क्लास (Middle Class)



हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं

बच्चों को सुबह स्कूल भेजकर
          खुद का नाश्ता भूल जाते हैं
हर रोज़ सुबह दफ़्तर में हम
          वक़्त पर हाज़िरी लगाते हैं
 फिर कभी बड़े साहब को
          उसके साहब से दुत्कार मिले
उसके अंदर के आक्रोश को भी
          हम चुप चाप सह जाते हैं
हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं

अपनी चाहत का गला घोटकर
          झूठी शान दिखलाते हैं
हम जो खुद नहीं कर पाए वो
          बच्चों से बोझ उठवाते हैं
हमको कैसे जीना है ये
          समाज के मुर्दे बतलाते हैं
खुद समाज  का हिस्सा हैं पर
          जाने किससे घबराते हैं
हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं

अपने जीने का साधन सब
          किश्तों पर लेकर आते हैं
अपने परिवार की खातिर हम
          अधिकोष  से क़र्ज़ उठाते हैं
ये चुका नहीं पाए तो सरकार माफ़ कर देती है
वो चुका नहीं पाए तो देश छोड़ चले जाते हैं
हम अकेले ऐसे हैं जिनके
           घर तक नोटिस आ जाते हैं
हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं

वक़्त पर अपना आयकर भरकर
          देश के काम हम आते हैं
कभी आपदा आन पड़े देश पर
          हम सबसे आगे खड़े हो जाते हैं
ये जो अरबों के मालिक हैं जो
          लाखों देकर नाम जताते हैं
इनके इसी प्रचार के खातिर हम
          चुप चाप तनख्वाह कटवाते हैं
हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं

बहुतों से ज्यादा अंक पाकर भी
          दाखिला लेने में चूक जाते हैं
किसी प्रकार के आरक्षण में हम
          कभी गिने नहीं जाते हैं
कुछ पैसे तो कुछ जाति के दम पर
          इस मुल्क में नाम कमाते हैं
सच तो ये है के हम खुद ही किसी
          गिनती में आने से घबराते हैं
हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं

देश विदेश की खबर जानकार
          हम भी अपनी राय बनाते हैं
सरकार की हर योजना पर हम भी
          कसकर टिप्पणियां लगाते हैं
ये सही है वो गलत है
          हम घर पर ही चिल्लाते हैं
सुनो ज़रा चाय चढ़ा दो , हम
          फिर से समाचार लगाते हैं
हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं

हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं

|| लेख़क : सौरव बंसल ||

Comments

Popular posts from this blog

..अक्सर..

अक्सर याद आते हैं वो लम्हे  अक्सर याद आती हैं वो बातें  जाने क्यूँ इन यादों के साथ  अक्सर नम हो जाती हैं आँखें  अक्सर इक अनजानी सी            मायूसी छा जाती है  अक्सर ऐसे सन्नाटे में            कोई आवाज़ सुनाई पड़ती है  अक्सर एक जानी पहचानी            हसी सुनाई पड़ती है  अक्सर आँखों में आँसू और            लबों पर मुस्कुराहट दिखाई पड़ती है  अक्सर याद आते हैं वो लम्हे  अक्सर याद आती हैं वो बातें ...  अक्सर चाय की प्याली एक            कश की याद दिलाती है  अक्सर ऐसे कश में जिन्दगी            सिमटी सी नज़र आती है  अक्सर चमकती धूप में भी            कोहरा दिखाई पड़ता है  अक्सर ऐसे कोहरे में इक            नशा सा छा जाता है  अक्सर याद आते हैं वो लम्हे  अक्सर याद आती हैं वो बातें ...  अक्सर रात के पहर में            ठहाके सुनाई पड़ते है  अक्सर मुझे मेरे ख़्वाबों में            कुछ चेहरे दिखाई पड़ते है  अक्सर एक पुरानी तस्वीर            कुछ वादे याद दिला देती है  अक्सर कोई बहती हवा            उनका हाल-ए-दिल सुना जाती है  अक्सर

किरदार

किरदार  आईना इन्सान का सिर्फ़ चेहरा दिखाया करता है  उस अक्स में उसका किरदार तो नहीं  जो किरदार में झलकता है वही ज्ञान है  इल्म पैसों का मोहताज़ तो नहीं  समाज की इस दौड़ ने चिड़ियों के पर काट दिए  हर किरदार मिसाल हो ये ज़रूरी तो नहीं  यूँ तो चाँद भी दावा करता है रौशनी का हर रात  उसका किरदार किसी भी रात सूरज तो नहीं  ये अच्छा है वो बुरा है उसका किरदार बतलाएगा  धर्म उसके किरदार का पहचान पत्र तो नहीं  समाचार भी नफ़ा नुक्सान देखकर बेचे जाते हैं  आज़ाद सोच भी यहाँ आज़ाद तो नहीं  कैसे यकीन करे कोई किसी अख़बार पर  इनके किरदार पर ऐतबार तो नहीं  पुरानी कहानी में पुराने किरदार मिलते हैं  मेरा आज का किस्सा वही पुराना तो नहीं  वो मेरे किरदार से मेरा व्यक्तित्व आँकते हैं  मैं जो कल था आज वही तो नहीं  मैं बेटा हूँ, बाप हूँ, पति हूँ, दोस्त हूँ  मैं हर किरदार में एक ही शख्स तो नहीं  देखा जाए तो परदे में है किरदार हर किसी का  उसके लफ्ज़ उसकी हक़ीक़त तो नहीं  अक्सर यहाँ ज़माने में कहानी बिकती है  किरदार की फ़िक्र कहानीकार को नहीं  उसे भरोसा था मेरे किरदार पर खुद से ज्यादा  पता चला कि वहम मेरा था उसका तो नहीं  किसी कहा

सफ़र

.. सफ़र..  ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा अजनबियों के साथ आना जाना होगा एक अनजाने शहर को चला , परिंदों का जैसे घराना होगा ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा होठों पर हसीन मुस्कुराहट होगी आँखों ही आँखों में बातें होंगी दिल का मगर घबराना होगा ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा बातें होंगी मुलाकातें होंगी  कुछ नयी सी सौगातें होंगी  थोड़ा सुनते थोड़ा सुनाते  हसते हसाते रूठते मनाते  सात दिनों का ये फ़साना होगा  ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा  मंज़िलों से होकर बेख़बर रास्तों की रखकर ख़बर चल पड़े सब साथ में , बन इस सफ़र के हमसफ़र फिर कहीं किसी सोच में , हर शख्स का यही गुनगुनाना होगा ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा कुछ नए पुराने ख्याल होंगे ज़हन में कई सवाल होंगे एक सूरत जानी अनजानी होगी कहती शायद कोई कहानी होगी इस रंगमंच में हर कोई सयाना होगा ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा नए रिश्ते होंगे कुछ गहरे सम्बन्ध होंगे कुछ यादगार पलों के हसीन प्रसंग होंगे इस सफ़र से जब वापिस आना होगा यकीनन ये अनुभव लुभावना होगा यादों की किताब में जैसे , नए अध्याय का जुड़ जाना होगा ये सफ़र भी कितना सुहा