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किरदार

किरदार  आईना इन्सान का सिर्फ़ चेहरा दिखाया करता है  उस अक्स में उसका किरदार तो नहीं  जो किरदार में झलकता है वही ज्ञान है  इल्म पैसों का मोहताज़ तो नहीं  समाज की इस दौड़ ने चिड़ियों के पर काट दिए  हर किरदार मिसाल हो ये ज़रूरी तो नहीं  यूँ तो चाँद भी दावा करता है रौशनी का हर रात  उसका किरदार किसी भी रात सूरज तो नहीं  ये अच्छा है वो बुरा है उसका किरदार बतलाएगा  धर्म उसके किरदार का पहचान पत्र तो नहीं  समाचार भी नफ़ा नुक्सान देखकर बेचे जाते हैं  आज़ाद सोच भी यहाँ आज़ाद तो नहीं  कैसे यकीन करे कोई किसी अख़बार पर  इनके किरदार पर ऐतबार तो नहीं  पुरानी कहानी में पुराने किरदार मिलते हैं  मेरा आज का किस्सा वही पुराना तो नहीं  वो मेरे किरदार से मेरा व्यक्तित्व आँकते हैं  मैं जो कल था आज वही तो नहीं  मैं बेटा हूँ, बाप हूँ, पति हूँ, दोस्त हूँ  मैं हर किरदार में एक ही शख्स तो नहीं  देखा जाए तो परदे में है किरदार हर किसी का  उसके लफ्ज़ उसकी हक़ीक़त तो नहीं  अक्सर यहाँ ज़माने में कहानी बिकती है  किरदार की फ़िक्र कहानीकार को नहीं  उसे भरोसा था मेरे किरदार पर खुद से ज्यादा  पता चला कि वहम मेरा था उसका तो नहीं  किसी कहा
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मिड्ल क्लास (Middle Class)

हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं बच्चों को सुबह स्कूल भेजकर           खुद का नाश्ता भूल जाते हैं हर रोज़ सुबह दफ़्तर में हम           वक़्त पर हाज़िरी लगाते हैं  फिर कभी बड़े साहब को           उसके साहब से दुत्कार मिले उसके अंदर के आक्रोश को भी           हम चुप चाप सह जाते हैं हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं अपनी चाहत का गला घोटकर           झूठी शान दिखलाते हैं हम जो खुद नहीं कर पाए वो           बच्चों से बोझ उठवाते हैं हमको कैसे जीना है ये           समाज के मुर्दे बतलाते हैं खुद समाज  का हिस्सा हैं पर           जाने किससे घबराते हैं हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं अपने जीने का साधन सब           किश्तों पर लेकर आते हैं अपने परिवार की खातिर हम           अधिकोष  से क़र्ज़ उठाते हैं ये चुका नहीं पाए तो सरकार माफ़ कर देती है वो चुका नहीं पाए तो देश छोड़ चले जाते हैं हम अकेले ऐसे हैं जिनके            घर तक नोटिस आ जाते हैं हम मिड्ल क्लास कहलाते हैं वक़्त पर अपना आयकर भरकर           देश के काम हम आते हैं कभी आपदा आन पड़े देश पर           हम सबसे आगे खड़े हो जाते हैं ये जो अरबों के

पृथ्वी दिवस

.. पृथ्वी दिवस .. बचपन में हर पृथ्वी दिवस पर           हम इनाम लाते थे पेड़ कटने से बने कागज़ पर           चित्र बनाते थे सूख रही थी पृथ्वी हम बेवज़ह           जल बहाते थे घुट रहा था दम पृथ्वी का           हम हवा में ज़हर मिलाते थे खोद कर पृथ्वी का सीना उसमें           कचरा दबाते थे वजूद मिटाकर पृथ्वी का हम           नाज़ जताते थे पिछले साल तक  पृथ्वी दिवस हम           यूँ ही मनाते थे अपने ही घर को जलाकर हम           जश्न मनाते थे इस बार ख़ुदा ने पृथ्वी दिवस पर           जादू कर दिया हवा भी साफ़ हो गयी           दरिया पानी से भर दिया खाली सहमे आसमानों को           उड़ती पतंगों से भर दिया कुछ और पेड़ बच गए           इस साल कटने से कुछ और परिंदों के घर           बच गए उजड़ने से इंसानों को करके क़ैद           कुदरत को आज़ाद कर दिया जैसे पृथ्वी ने इन बेड़ियों से           खुद को आज़ाद कर लिया अभी भी वक़्त है तुम सोचो            और प्रण करो इस बार हर दिन बचाओ इस घर को           पृथ्वी दिवस का मत करो इंतज़ार || लेख़क : सौरव बंसल || 

सफ़र

.. सफ़र..  ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा अजनबियों के साथ आना जाना होगा एक अनजाने शहर को चला , परिंदों का जैसे घराना होगा ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा होठों पर हसीन मुस्कुराहट होगी आँखों ही आँखों में बातें होंगी दिल का मगर घबराना होगा ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा बातें होंगी मुलाकातें होंगी  कुछ नयी सी सौगातें होंगी  थोड़ा सुनते थोड़ा सुनाते  हसते हसाते रूठते मनाते  सात दिनों का ये फ़साना होगा  ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा  मंज़िलों से होकर बेख़बर रास्तों की रखकर ख़बर चल पड़े सब साथ में , बन इस सफ़र के हमसफ़र फिर कहीं किसी सोच में , हर शख्स का यही गुनगुनाना होगा ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा कुछ नए पुराने ख्याल होंगे ज़हन में कई सवाल होंगे एक सूरत जानी अनजानी होगी कहती शायद कोई कहानी होगी इस रंगमंच में हर कोई सयाना होगा ये सफ़र भी कितना सुहाना होगा नए रिश्ते होंगे कुछ गहरे सम्बन्ध होंगे कुछ यादगार पलों के हसीन प्रसंग होंगे इस सफ़र से जब वापिस आना होगा यकीनन ये अनुभव लुभावना होगा यादों की किताब में जैसे , नए अध्याय का जुड़ जाना होगा ये सफ़र भी कितना सुहा

सलाम है

वो लड़ रहे थे मौत से           मौत की गोद में बैठकर वो जो दवा कर रहे थे           खुद मरीज़ हो गए वो कर रहे थे बदसलूकी इनसे           जिनको ज़रूरत है इनकी जो अपनों के बीच ही मुहाजिर हैं           यहाँ बुद्धिजीव हो गए हम बैठे थे अपने शबिस्तां में           पूरी हिफ़ाज़त के साथ वो अपने घरों से दूर थे           इस जानलेवा मर्ज़ के क़रीब हो गए कौन कहता है कि जंग सिर्फ़           सरहद पर लड़ी जाती है कुछ सफ़ेद वर्दी वाले          इस जंग में शहीद हो गए ये जो कर रहे हैं सियासत           इस गूढ़ वक़्त में भी इनसे कहदो जो कल मेमने थे           आज मतंग हो गए कोई है मेरा अपना भी           जो इस लड़ाई में मशगूल है मेरे घर के आईने भी           उसकी फ़िक्र में मसरूफ़ हो गए यूँ ही नहीं सफ़ेद वर्दी को           ख़ुदा की सूरत कहा जाता जाने कितने इनकी बदौलत           जीवंत हो गए सलाम है लविशा तुमको           और दुनिया के हर ताबीब को तुम्हारी शिद्दत के आगे           सब क्षीण हो गए || लेख़क : सौरव बंसल || 

लॉकडाउन स्टोरी

लॉकडाउन स्टोरी [{ आज विष्णु ऑफिस से घर आते वक़्त बहुत चुप सा था माँ बाबा से कुछ बात करना चाहता था मगर कैसे करे ये समझ नहीं पा रहा था जैसे ही घर पहुँचा, माँ ने उसके पसंद का खाना परोसा बाबा भी अपने कमरे से बाहर आ गए रिटायरमेंट के बाद बाबा अपना ज़्यादा वक़्त घर पर ही गुज़ारने लगे थे तीन लोगों के इस छोटे से परिवार में खुशियाँ छोटी छोटी चीज़ों में ही मिल जाती थी विष्णु ने खाना खत्म किया और बाबा के साथ बॉलकनी में चला गया तू आज बहुत चुप सा है, कुछ बोलना चाहता है क्या - बाबा ने पूछा विष्णु ने निवेदन किया - बाबा , मैं विदेश जा कर नौकरी करना चाहता हूँ मैंने अमेरिका की एक कंपनी में अप्लाई  किया था और उन्होंने मुझे नौकरी करने का प्रस्ताव पत्र भी भेज दिया है बाबा मुझे अगले महीने जाना होगा बाबा चुप चाप विष्णु की बात सुन रहे थे मानो उन्हें जिस बात का डर था... अब होनी उसी की तरफ इशारा कर रही थी तू थक गया होगा जा कर आराम कर ले इतना बोल कर बाबा उठे और अपने कमरे में चले गए विष्णु समझ गया कि बाबा की इसमें रज़ामंदी नहीं थी ... कि वो अपना घर, अपना देश छोड़ कर किसी दूसरे देश में जा कर

हैरान कर दिया

कहाँ बैठकर कर  रहा है           ये सारी साज़िशें ऐ ख़ुदा तूने हमको           हैरान कर दिया घर के बूढ़े तरसते थे           बच्चों से बात करने को साथ बैठ रामायण देखने का           इंतेज़ाम कर दिया जिन बच्चों को दिखते थे           पापा सिर्फ़ शाम को अब आठों पहर का वक़्त           उनके नाम कर दिया जिनके बच्चे पलते थे           आया की गोद में उन माँओं को देवकी से           यशोदा कर दिया वक़्त नहीं था जिनके पास           पल भर का भी कैद घर में खाली           वो इन्सान कर दिया जो लोग रोज़मर्रा में           गंभीर रहते थे ज़िन्दगी का हर पल           अब एक लतीफ़ा कर दिया खड़ी रह गयी गाड़ियाँ           घरों के सामने फालतू एक पल में           साजो सामान कर दिया बंटे हुए रहते थे जो           ऊँच नीच के दायरे में हर इन्सान को बराबर की           रोटी का हक़दार कर दिया ईंट पत्थर से बनकर जो           अकड़कर खड़ा था उस मकान को हस्ता खेलता           घर कर दिया मलिन कर दिया हमने ही           जिसको हम पूजते थे गंगा के उस पानी को           फ़िर से पाक कर दिया खो गयी थी जो चमक